Fourth Place Entry - 2024

 
 

मेला - स्वयं की खोज 

मेला जनमानस के समागम का स्थल है,
जहाँ कई बार मिलन दो व्यक्तियों का ही नहीं,
स्वयं का स्वयं से भी संभव है।


2023
रात्रि के एक बजे थे। राघव की आँखों में नींद नहीं थी। बस छत को व्यर्थ ही ताके जा रहा था। कल मेले का पहला दिन था। इसी मंता में करवट बदल रहा था।
"कल पिताजी भी चलेंगे"
अपने पिता के मन में वर्षों से चल रही ऊहापोह को वह आज पहली बार समझ पा रहा था।

2003
राघव, पश्चिम बंगाल के 'आसनसोल' शहर की नगर निगम के अधीन एक छोटे से गाँव का निवासी था। कोयला खनिज के लिए विख्यात आसनसोल की अधिकतर वासिंदों की आमदनी कोयला, स्टील आमद से जुड़ी थी। राघव के पिता ‘सेन साहब’, शुरुआती दिनों में कोयले के खदान में काम करते थे, तत्पश्चात सामाजिक कार्यक्रमों की संचालन के व्यवसाय से जुड़ गए। जयन्ती अनुष्ठान, मेला, कीर्तन,जात्रा, चौबीस प्रहर - जैसे कार्यक्रमों की व्यवस्था को मैनेज करते थे। हालाँकि सेन साहब, इन सबसे ज़्यादा दुर्गापूजा के मेले के लिए अपना दिन रात एक कर देते थें।

नवरात्रि के अंतिम चार दिवस, बंगाल वासियों के लिए प्रमुख रूप से त्यौहार के दिन होते हैं। उस वक़्त आप वहाँ के किसी भी नागरिक को त्यौहार के रंग में रमा पाएंगे। रोज़मर्रा के टाइम टेबल को ठेलकर, त्यौहार की गतिविधियों की अनुसूची लोग बनाने लगते हैं - नन्हाल जाना, रिश्तेदारों से मिलना, दोस्तों संघ पंडालों की सैर करना - पूरा परिवार इसी के हर्षोल्लास में डूब जाता है। मगर सब के अनुसूची में मेला घूमने की एक ख़ास जगह थी। अतएव सेन साहब के कंधों पर मेले को सुचारु रूप से लाने की जिम्मेदारी थी। त्यौहार के वे चार दिन उनके लिए पलक झपकते ही गुज़र जाते। राघव को अपने पिता का यूँ त्यौहार में व्यस्त रहना कभी पसंद न था।

“पापा, कोखोन तुमी छूटी पाबे?” (आपको कब छुट्टी मिलेगी)

“मेला शेष होए जाबे, तार पर ” (मेला खत्म होने के बाद)

यह सुनकर वह और चिढ़ जाता। दूसरों के पिता की भाँति उसे भी अपने पिता के संघ मेला घूमने का बहुत मन होता था।

उसका निवास स्थान शहर के मुख्य स्थान से ज़्यादा दूर नहीं था। यह दूरी बस ५ किलोमीटर की थी। शहर जाने वाला रास्ता पहले एक टाउनशिप से गुज़रता था। इसकी स्थापना इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी द्वारा अपने कर्मचारियों के लिए की गई थी। यहाँ के एक मैदान में सेन साहब एक भव्य मेले का संचालन और देखरेख करते थे। जहाँ मैदान के एक तरफ सुरम्य दुर्गोत्सव पंडाल की स्थापना होती, तो दूसरी तरफ मेले की संरचना। टाउनशिप की अवस्थित शहर और ग्रामों के मध्य होने से, दोनों तरफ के रहने वालों की भीड़ मेले में जुट जाती थी। इसका प्रारम्भ पंमी से होता था और दशमी को समाप्ति होती। मगर लोकप्रियता के कारण मेला तेरहवीं के बाद ही समाप्त होता था।

प्रतिवर्ष सप्तमी के दिन राघव मेला घूमने जाता था। संध्या आरती के बाद, पिता के साइकिल के पीछे लगी कैरियर पर बैठ, गंतव्य के लिए निकल पड़ता। आगे का रास्ता खेतों के बीच से जाता था। दोनों तरफ बड़े मैदान, खेत, बागान और घने जंगल अंधकार में डरावने लगते। लेकिन दूर टिमटिमाती लाइटों से जगमगाते मेले के बड़े-बड़े झूले मन को ढांढस देते। उन दिनों वाहन की सुविधा हर किसी के पास नहीं होती थी, अतएव अधिकतर लोग पदयात्री थे। उनके कारण अंधेरा पथ और जीवित हो उठता। आगे संथाली ग्रामवासी भीड़ पैदल यात्रियों में शुमार होने लगे। एक ओर सफ़ेद पतली धारी वाली धोती में पुरुष और लाल पाड़ (धारी) पीली साड़ी पहनी संथाली महिलाएँ, तो दूसरी ओर अन्य नौजवानों के भाँति पाश्चात्य वेश में उनकी युवा पीढ़ी - संस्कृति और आधुनिकीकरण का अद्भुत मिश्रण की झांकी यह मेला दिखाता है। उसी गाँव के चौराहे पर राघव का मित्र बलराम उसकी प्रतीक्षा करता और आते ही उसके संघ साइकिल पर सैर हो जाता।

टाउनशिप निकट आने पर मार्ग के दोनों तरफ चन्दननगर की लाइटें अतिथियों का स्वागत करती थी, इन्हें देख राघव मन ही मन मुस्कराने लगता। इधर फेरीवाला, बाँसुरी वाला, खिलौनेवाला, गुब्बारेवाला - इनके अनोखे विक्रय कौशल आने वालों को अपनी तरफ आकर्षित करते, तो उधर अपने प्रशंसकों से घिरे फुचका वाले (गोलगप्पे वाले) और आइसक्रीम वाले की लोकप्रियता देखने लायक होती। शहर के विभिन्न प्रान्त से आए हुओं की भीड़ गेट के पास उमड़ी हुई थी। राघव और बलराम को सेन साहब अंदर छोड़, मेले के ऑफिस में ले जाते। उन दोनों का तीसरा मित्र था प्रांजल। उसके पिता सीताराम सिंह जी सेन साहब के मेले में झूलों के व्यवसाय को संभालते थे। फलस्वरूप इन तीनों को झूलों की अनगिनत राउंड लगाने को मिलता। प्रांजल मूलतः उत्तर प्रदेश के बुन्देल क्षेत्र से था। उसके दादा की ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड में नौकरी लगने के बाद वे यही बस गए।

आसनसोल के जनसांख्यिकी की विविधता कई पीढ़ियों से है और इतनी विशिष्ट है, कि आप इसे अनदेखा नहीं कर सकते। यहाँ विभिन्न प्रदेशों के लोग, कई पीढ़ियों से बसे हुए हैं, अतः विभिन्न संस्कृति की सुरम्य मिश्रण की झांकी, यहाँ की बोली, खान-पान, त्योहारों और यहाँ तक की मेले में भी दिखाई देती है।

पंडाल की प्रतिमा का दर्शन किये, तीनों दोस्त झटपट झूले की ओर भागते। मिक्की माउस, फेरी प्लेन, कार प्लेन, स्लैंबो, हेलीकाप्टर, छोटे जायंट व्हील, नाव इत्यादि झूलों की सर्वाधिक राउंड लगाने की तीनों में होड़ लगती थी। और जो हारता उसे घुगनी खिलाना पड़ता। प्रांजल की नज़र खिलौने के स्टॉलों पर होती - गाड़ी, बन्दूक, डॉक्टर सेट, हेलीकाप्टर, हवाई जहाज़…तो वहीं बलराम पेटू था, पाव, डोसा, पापड़, जलेबी, मुगलई, मथुरा के पेड़े, नमकीन, टिकी, पंजाबी छोले इत्यादि इत्यादि क्या खाए, क्या छोड़े? राघव को पसंद थे उपहार जीतने वाले खेल - तीरंदाज़ी, रिंग फेंकना, बॉल फेंकना। वहाँ एक विज्ञान का टेंट होता था, जहाँ जादुई ट्रिक्स दिखाई जाती जैसे पानी निकालने वाला बिना किसी पाइप से जुड़ा नलका। इनके पीछे के वैज्ञानिक कारण बताने वालों को उपहार मिलता। लॉटरी स्टॉल में युवक-युवतियाँ अपने किस्मत की आजमाइश करते - कंघी, मग, पेन से लेकर इस्त्री, साइकिल कुछ भी मिल सकता है। दूसरी ओर करतब दिखाने वाले कलाकार होश उड़ाने में माहिर थे।

"हर एक माल, दस रूपया" चिल्लाने वाला फेरीवाला सब की आँखों का तारा था। राघव भी वहाँ से माँ के लिए कुछ न कुछ खरीद ले जाता। घूमते-घूमते थकावट होती तो वे मंच के सामने बैठ जाते, जहाँ कभी बाउल गायक, जात्रा शिल्पी, नृत्य शिल्पी अपनी कला को पेश करते तो कभी क्विज़, अंताक्षरी जैसे अनुष्ठान समां बाँध देते। चलते-चलते बूढ़ीया के बाल और साबुन का बुलबुला खरीदना तो अनिवार्य था। बलराम की मौसी के हाथों के गुलाब जामुन मुँह में घुल जाते थे। 

मिठाई के स्टॉल में औरतों की भीड़ को चीरकर राघव और उसके दोस्त अंतिम स्टॉलों की पंक्ति में ख़ास भेलपुरी खाने जाते। टमाटर और नारियल से सजी सेव के बड़े से पहाड़ से वह अपने स्टॉल को सजाता था, उसके हाथ की झाल मूड़ी मन हर लेती थी। लोहे के बर्तन बेचने वाले के सामने बलराम खड़ा हो जाता, उसे बड़े होकर शेफ जो बनना था। बड़े जायंट व्हील पर न चढ़ पाने का दुःख तीनों को होता था। 

"देखना राघव, मैं जब बड़ा हो जाऊँगा न, तब मैं इनसे भी बड़े-बड़े झूले लगाऊँगा। जिनकी सभी सैर कर पाएँगे।" 

राघव का मेले से जुड़ा ऐसा कोई सपना न था। एक ओर मेला, उसके मन को पिता के लिए गर्व से भर देता, तो दूसरी ओर वही मेला उसके पिता को छुट्टी नहीं देता। दूसरों की तरह अपने पिता के संग त्योहार मनाने के लिए उसका मन तरस जाता था। 

अंत में एक-एक गुब्बारा हाथ में लिए, तीनों सीताराम जी की बाइक से घर को रवाना हो जाते।    

जैसे-जैसे समय बीता, शहर का कायाकल्प भी बदलने लगा था। नई सड़कें, बड़ी इमारतें, मॉल, कैफे... ने नगर के छवि को तीन सौ साठ डिग्री बदल दिया था। नए विकल्पों के आने से जन-साधारण के मनोरंजन के लिए रुझान भी बदल गए थे। जो जनता पहले सिर्फ मेले के आनंद में आल्हादित रहती थी, आज वही जनता आनंद भोगने हेतु सिर्फ मेले तक सीमित नहीं रहना चाहती थी। इस बदलाव में राघव स्वयं भी शामिल था, पहले दुर्गा पूजा के चारों दिन मेले में ही उसके बीत जाते, मगर अब उन दिनों में वह दोस्तों संग थीम पंडाल, मॉल, सिनेमा आदि जाने लगा।

2023

इन बीस वर्षों में अट्ठाइस वर्षीय राघव नौजवान हो गया था। ग्रेजुएशन के बाद, उसने एम.बी.ए शहर के बाहर की। एकाएक उसे बाहर नौकरी भी मिली। अभी दफ्तर में कदम जमाए उसे दो वर्ष ही हुए थे कि अचानक कंपनी बंद हो गई। कुछ न सूझने पर, उसने माता-पिता के यहाँ जाना ठीक समझा और भारी मन से अपने गृहनगर वापस आ गया। घर में भी कहाँ शांति थी। सेन साहब डेंगू में बुखार से बस अभी उभरे ही थे। फलस्वरूप उनके सारे काम रुक गए थे। ठेकेदार, शिल्पकार, लेनदार का आवागमन लगा रहता और अगर राघव दिख जाए तो -
"कोखोन एली? (कब आए?)"
"काम कैसा चल रहा है?"

-जैसे प्रश्न मन को कचोट देते।
एक रोज़ प्रांजल सेन साहब की सुध लेने आया। युवक प्रांजल पिता का व्यवसाय संभालता है।
" चाचा कैसे हैं?"
" पहले से ठीक है।"
"टाउनशिप पूजा समिति वाले मीटिंग के लिए बुलाते हैं।"
"पर इस हालत में पापा कैसे जाएँगे?"
"हाँ यार, मैंने उन्हें यही कहा। पर कहते हैं मीटिंग बहुत ज़रूरी है। एक काम कर तू आजा।"
"अरे, मैं नहीं यार। उनसे कहो मीटिंग बाद में करें।"

मेले में कार्यक्रमों में विशेष रूचि न होने से, राघव ने हमेशा खुद को दूर रखा है।
मगर घर में अंदर से अपनी शीतल आवाज़ में सेन साहब बोलें - "बेटा, कल मीटिंग रखवा लेना। मैं राघव को भेज दूँगा।"
राघव, आज अपने वयस्क पिता की इच्छा का विरोध नहीं कर सका।

समिति के चेयरमैन थे बनर्जी बाबू।

अपनी भारी आवाज़ में बोले "देखो प्रांजल, इस बार हमने निर्णय लिया है कि मैदान में एक तिहाई में मेला लगेगा और बाकी में एरिया में पंडाल।"

मैदान के आधे हिस्से में होती आ रही मेले को केवल एक तिहाई का एरिया मिलना, प्रांजल को एक आँख नहीं भाया। आग-बबूला होकर बोला "आपका निर्णय बिल्कुल गलत है। इतने से स्थान में मेला कैसे बसेगा?"

"तो इस बार दुकानें या झूले कम कर दो।"

"कम कर दें? तब तो हो गया। मेले में 'मेले' जैसी बात ही नहीं रहेगी।"

"देखो मेले में पहले जैसी भीड़ नहीं होती। बल्कि आबादी में लगातार गिरावट देखी है। थीम पंडालों का दौर है, इसलिए हम पंडाल के सौंदर्यीकरण पर ज़ोर देना चाहते हैं।"

प्रांजल खड़ा हो गया। और इससे पहले कि कुछ पलटवार करता, राघव बोला "थोड़ा समय दीजिये, हम आपको अपना निर्णय बता देंगे।"

और एक हाथ से प्रांजल को खींचता हुआ बाहर निकल गया।

प्रांजल बोला "तू बाबा को क्या बताएगा? खबर सुनते ही उनका दिल बैठ जाएगा।"

राघव गहरी चिंतन में पड़ गया। यह तो सत्य ही था कि मेले की लोकप्रियता पहले जैसी न थी। पर समिति का निर्णय न केवल पिता को पर मेले से जुड़े सभी लोगों को ठेस पहुँचाएगा। उन सबकी आमदनी रुक जाएगी।

एकाएक वह वापस अंदर गया। थोड़ी देर बाद अपनी कपाल से पसीना पोंछते हुए निकला ।

प्रांजल - "क्या हुआ? अंदर क्यों गया था?"

राघव - "मैंने उन्हें इस वर्ष के लिए मना लिया। मैदान का आधा हिस्सा देने को तैयार हो गए।"

"वाह! राम जी ने बचा लिया |" 

"हाँ। पर यह हमारा आखिरी अवसर है। इस बार का मेला ऐसा होना चाहिए कि उनका निर्णय हमेशा के लिए बदल जाए।"


नवरात्रि आने में अब डेढ़ महीने बचे हैं। सेन साहब ज्वर की कमजोरी से उभरे नहीं थे, इसलिए राघव ने अपनी कमर पर मेले का जिम्मा स्वेच्छा से अपनी कंधों

 पर ले लिया। उसने शुरू से शुरू करने की ठानी। मेले की लोकप्रियता में क्यों कमी आई? लोगों की क्या अपेक्षाएँ हैं? इन प्रश्नों की खोज में वह विभिन्न स्थानों में जाकर बातचीत करने लगा। दोस्तों, रिश्तेदारों, स्कूल के बच्चों, औरतों, वृद्ध - सबसे बात की।


सबके विचार भिन्न थे, कोई मेले को सिर्फ छोटे बच्चों के लिए समझता, बच्चों के लिए झूलों की सुरक्षा एक प्रश्न था, किसी को नएपन की कमी लगती, बुजुर्ग अपनी शारीरिक कारणों का हवाला देते, तो किसी को बिकने वाले सामानों में विविधता की कमी लगती।

एक शाम राघव ने बैठक बुलाई। प्रांजल के अतिरिक्त  फेरीवाले, दुकानदार, शिल्पकार, कलाकार भी आए थे। आज बलराम भी आया था।

प्रांजल कहता, "अरे! तुम की टिप्पणियों को तूल मत दो। वो ज्यो

 कहेंगे, वही करोगे क्या?" 

बलराम बोला, "पर मेला तो लोगों का है। और उनकी प्रतिक्रियाएँ जानना ज़रूरी है प्रांजल।" 

कोई पूछा "तो अब क्या करें?"

राघव - "बदलाव जीवन का नियम है। कई बार नदी को भी सागर से मिलने के लिए अपना रास्ता बदल देना पड़ता है।"

फिर कोई पूछा, "कैसा बदलाव?"

"मेले में आधुनिकीकरण और नवीनता लानी होगी। लोगों के मनोरंजन और सुविधा का ध्यान रखना होगा।"

"जैसे पंडालों की नई थीम होती है, वैसे ही मेले की भी प्रत्येक वर्ष नई थीम होगी।"

बलराम - "क्यों न थीम किसी प्रदेश की संस्कृति की झलक हो? इससे हर साल मेले में नवीनता बनी रहेगी।"

सभी ने हामी भरी।

राघव - "प्रांजल, तू हमेशा से झूलों में आधुनिकीकरण लाना चाहता था। अब समय आ गया है दोस्त। मेरा तुमसे आग्रह रहेगा कि तुम सुरक्षा का भी ध्यान रखो और हो सके तो कुछ ऐसा करो कि इनका मजा वयस्क भी ले सकें।"


प्रांजल की आँखें खुशी से चमकने लगीं। पहली बार अपने दोस्त को मेले के लिए इतना उत्साहित देख, वह खुश था।

बैठक देर रात तक चली।
कल रात राघव को नींद नहीं आई। देर रात तक, वह बरामदे में बैठा रहा।


आज पंचमी है। शाम को उसने बाइक निकाली और सेन साहब उसके पीछे बैठे। सेन साहब का मन आज खुशी से भरा और उतना ही व्याकुल था, आखिर राघव पहली बार मेला संचालन कर रहा था। बाहर रास्ते पर लोग मेला जाते हुए दिखे। पर कोई पैदल नहीं था। राघव ने बताया कि उन्होंने मेला से दो किलोमीटर की दूरी वाले इलाकों में पैदल मेला जाने वालों के लिए किफायती दाम में इलेक्ट्रिक ऑटो का प्रबंध किया है। उन ऑटो में उन्होंने कई बूढ़े लोगों को भी जाते हुए देखा, जो शायद पैदल कभी न जाते।

प्रवेश द्वार कश्मीर की कलाकृतियों से सजा था, यहाँ तक कि नगर में लाइटें वहाँ के दृश्य को दर्शा रही थीं। पंडाल की सजावट अत्यंत मनभावक थी, जम्मू में स्थित 'वैष्णो देवी मंदिर' से प्रेरित थी। पंडाल के पास के बरगद के पेड़ को लाइटों से सजाया गया। उसके नीचे औपचारिक जैसा बैठने का स्थान था, और एक चाय की टपरी। वहाँ बैठे लोग, खासकर बुज़ुर्ग गप्पे लड़ाते दिखे। सेन साहब ने कुछ युवकों को 'डाल लेक' का मज़ाक करते हुए सुना।
आगे का दृश्य हैरान करने वाला था। मैदान के बीस-बाईस बड़े कृत्रिम तालाब बने थे। पतली नौकाएँ तैर रही थीं। नाविक, किनारे पर खड़े ग्राहकों को सामान दे रहे थे। 'फ्लोटिंग बाजार' जैसा दृश्य सेन साहब को मजेदार लगा।
झील की तरफ एक सेल्फी पॉइंट था। कश्मीरी पोशाक पहने लोग फोटो क्लिक करवा रहे थे। धीमी आवाज़ में बज रहे कश्मीरी और पुराने बॉलीवुड गाने, कश्मीर में होने का एहसास करा रहे थे। 
झील के एक तरफ की स्टॉल में पुराने फेरीवालों के सामान, कश्मीरी परिधान, सूखे फल (अखरोट, एप्रिकॉट आदि), कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगी थी। बाकी स्टॉल में आसपास के ग्रामीणों के मशहूर शिल्प जैसे डोकरा, टेराकोटा, और मुखौटे बेचे जा रहे थे। उसी पंक्ति के अंतिम टेंट में बेकरी, मसालेदार चाय, पॉटरी, कश्मीरी पेपर मैश आदि के वर्कशॉप लगे थे। यहाँ कोई भी इन कलाओं को सीखकर अपनी कृतियाँ ले जा सकता था। न केवल बच्चे, यहाँ के हर्ष का स्वाद युवा, अधेड़ और वृद्ध भी ले रहे थे।

दूसरी तरफ खाद्य स्टॉल की विविधता, किसी के भी मुँह में पानी ला रही थी। कश्मीर में 'सेब' का अलग स्टॉल था। सेब का रस, जैम, पाई, आचार, मुरब्बा, कहवा, मक्खन आदि लुभावन थे। विभिन्न प्रदेशों के पकवान भी शाम में शामिल थे - मट्ठी, धुस्का, भठूरे, इडली, रबड़ी-जलेबी, बसंती पुलाव, खाजा आदि की खुशबू अपनी ओर खींच रही थी। वहीं एक स्टॉल बलराम की मौसी का था - 'घरे का खाना' नाम से था। यहाँ ग्राहक सादा रोटी, सब्जी, दूध जैसे पौष्टिक पकवान सस्ते दाम में मिल रहे थे, ताकि कोई भी मेले में अपना पेट भर सके।

बीच में कुछ कलाकार प्रदर्शन करते हुए सबका मनोरंजन कर रहे थे। मैदान में कई छोटे ओपन स्टेज बने हुए थे जहाँ अलग-अलग लोक कला की प्रदर्शनी हो रही थी, ताकि हर कला के अपने प्रशंसा करने वाले उनका एक साथ आनंद ले सकें।

आगे झूले लगे थे। प्रांजल की मेहनत रंग लाई। जहाँ बड़े झूलों में भीड़ थी, नए झूले भी लगे थे। कुछ तो सोलर पैनल से संचालित हो रहे थे। एल.ई.डी लाइटों से सजी झूलों के घूमने से, लाइटें अलग-अलग रंग बना रही थीं। उसने सभी झूलों में सीट बेल्ट और सुरक्षा नेट भी लगाए थे। उसने पुराने झूलों की मरम्मत कर उन्हें ऐसा रूप दे दिया कि उन पर वृद्ध भी सैर कर सकें। गेम ज़ोन में भी विविधता थी।

निकास के गेट के पास, एक बड़ा सा टेंट था। वहाँ बहुत भीड़ थी। कुछ पूछने पर पता चला कि उस 'रिसाइकिल टेंट' में ग्राहक अपने प्लास्टिक के बोतल, कप, प्लेट जमा कर सकते थे, बदले में उन्हें लॉटरी कूपन मिलता था जिससे उन्हें कोई उपहार प्राप्त होता। सेन साहब को यह तरीका अनोखा लगा। बाहर जाने पर, हर परिवार के एक सदस्य को एक पौधा मेले की तरफ से मिल रहा था।

आज राघव बहुत व्यस्त था। परंतु सेन साहब को कोई शिकायत नहीं थी। वे गौरवान्वित थे। आखिरकार उनका बेटा सक्षम हो गया था। उसे अपने अंदर की क्षमताओं का बोध हो गया था। मेले ने उसे स्वयं से मिलाया था।

मेले की अवधि, चार दिनों में और बढ़ गई थी। लोगों के अनुरोध से मेले की समाप्ति तिथि तक खींच गई।

 

Shreya Sarkar, Asansol

This piece is part of Nagrika’s Annual Youth Writing Contest. Through the writing contest we encourage youth to think creatively and innovatively about their cities.